‘मुफ्त’ के जाल में फंसे मतदाता, वोटर्स से छीन ली गई वोट की ताकत

नई दील्लीः भारतीय निर्वाचन आयोग का गठन 72 साल पहले हुआ था और इस दिन को National Voters Day के रूप में भी मनाया जाता है. वैसे तो ये दिन भारत की राजनीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण था. लेकिन एक कड़वा सच ये है कि यहीं से ये धारणा बनी कि चुनाव जीतना ही लोकतंत्र है. इस धारणा की वजह से हमारे देश के नेताओं ने भारत की ज़रूरतों से ज़्यादा चुनाव जीतने पर ध्यान देना शुरू कर दिया. चुनाव कैसे जीते जा सकते हैं, इसके लिए रणनीतियां बनाई जाने लगीं और इससे हमारे देश के नेता चुनाव जीतने में माहिर हो गए लेकिन इस चुनावी प्रपंच में देश उन लक्ष्यों से भटक गया, जो आजादी से पहले उसकी प्राथमिकता थे. इसके अलावा भारत के करोड़ों वोटर्स भी पिछले 7 दशकों में चुनाव और लोकतंत्र को सही मायनों में कभी समझ ही नहीं पाए. कभी ये वोटर्स, किसी पार्टी का वोट बैंक बन गए. कभी किसी पार्टी ने इनके नाम पर तुष्टिकरण किया और कभी मुफ्त का माल देकर इस देश के वोटर्स से उनके वोट की ताक़त छीन ली गई. कुल मिला कर देखें.. तो चुनावों की राजनीति चार स्तम्भ पर आकर टिक गई.

आरक्षण का इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिए

इनमें पहला था, आरक्षण. भारत के संविधान में आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ़ 10 वर्षों के लिए की गई थी और ये तय किया गया था कि 10 वर्षों के बाद इसकी समीक्षा की जाएगी. इसी पर आगे बढ़ते हुए इसे ख़त्म किया जाएगा. लेकिन हमारे देश के नेताओं ने आरक्षण का इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिए किया. आज आरक्षण किसी भी नेता के लिए उसका मनपसंद टॉपिक होता है.

इससे ध्रुवीकरण का विचार मज़बूत हो गया

दूसरा, नेताओं ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के तुष्टिकरण को एक बहुत बड़ा हथियार बना लिया. Securalism की आड़ में तुष्टिकरण के विचार को हवा दी गई और ऐसा करके लोगों के वोट हासिल किए गए. तीसरा Point है ध्रुवीकरण.. भारत में 1951 और 1952 के पहले लोक सभा चुनाव से ही धर्म, सम्प्रदाय, जाति, भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता के मुद्दे को आधार बनाकर ध्रुवीकरण की राजनीति शुरू हो गई थी. जब चुनावों में पार्टियों को इसका फायदा हुआ तो इससे ध्रुवीकरण का विचार मज़बूत हो गया और ये विचार आज भी भारतीय राजनीति के DNA में मौजूद है.

चुनावों में शराब और साड़ियां बांटने की परम्परा

चौथा है मुफ्त का माल.. 1960 के दशक में हमारे देश के कुछ नेता इस बात को समझ गए थे कि अगर इस देश के वोटर्स को मुफ्त में कोई सामान या सुविधा दी जाए, तो चुनाव में वो वोटर, उस पार्टी और सरकार के लिए ईमानदार बन जाएगा. उदाहरण के लिए, वर्ष 1967 के तमिलनाडु चुनाव में DMK संस्थापक सी. एन. अन्नादुराई ने लोगों को एक रुपये में साढ़े चार किलोग्राम अनाज देने का ऐलान किया. वर्ष 2006 में DMK के एम. करुणानिधि ने चुनाव से पहले लोगों को मुफ्त Colour TV देने का वादा किया.  2013 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने लगभग 900 करोड़ रुपये ख़र्च करके युवाओं को मुफ्त लैपटॉप बांटे थे. चुनावों में शराब और साड़ियां बांटने की परम्परा 1960 के दशक से ही शुरू हो गई थी.

दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार भी..

दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार भी लोगों को मुफ्त बिजली और पानी देकर सरकार बना चुकी है. अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव हैं, वहां भी पार्टियों के बीच वोटर्स को मुफ्त का माल देने की होड़ लगी हुई है. पंजाब में आम आदमी पार्टी ने प्रत्येक महिला को हर महीने एक हज़ार रुपये और 300 यूनिट तक बिजली मुफ्त देने का ऐलान किया है. कांग्रेस ने प्रत्येक महिला को हर महीने 2 हज़ार रुपये देने का वादा किया. और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव भी 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने का वादा कर चुके हैं.

यूपी पर 6 लाख 11 हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज

आपको जानकर हैरानी होगी कि इन राज्यों पर भारी भरकम कर्ज है. उत्तर प्रदेश पर 6 लाख 11 हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज है. ये देश के रक्षा बजट से भी ज्यादा है. देश का रक्षा बजट लगभग 4 लाख करोड़ रुपये है. पश्चिम बंगाल पर 5 लाख 35 हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज है. तमिल नाडु पर चार लाख 85 हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज है. पंजाब पर 2 लाख 82 हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज है. और बिहार पर 1 लाख 47 हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज है. इसके अलावा महाराष्ट्र पर सबसे ज्यादा 6 लाख 15 हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज है.

वोटर्स को बड़े-बड़े हाइवे चाहिए

आज हमारे देश के बहुत सारे वोटर्स को बड़े-बड़े हाइवे चाहिए, अच्छे अस्पताल चाहिए, अपने शहर में वर्ल्ड क्लास सुविधाएं चाहिए, लेकिन जब बात वोट देने की आती है तो बहुत सारे लोग, उन पार्टियों को चुनते हैं, जो उन्हें मुफ्त बिजली और पानी देने का वादा करती हैं. जो कहती हैं कि वो उन्हें घर बैठे रोज़गार भत्ता देंगी और लोगों को कोई काम ही नहीं करना पड़ेगा. यानी इस चुनावी राजनीति की वजह से हमारा देश परिश्रमी बनने के बजाय आलसी बनने की दिशा में बढ़ रहा है.

90 करोड़ से ज़्यादा वोटर्स

135 करोड़ की आबादी वाले भारत में 90 करोड़ से ज़्यादा वोटर्स हैं. ये संख्या, अमेरिका के कुल वोटर्स की संख्या से लगभग पांच गुना ज़्यादा है. अमेरिका की 33 करोड़ की आबादी में 17 करोड़ ही वोटर्स हैं. लेकिन इसके बावजूद, भारत के ज्यादातर वोटर्स, आज भी लोकतंत्र के सच्चे सिपाही नहीं बन पाए हैं. बल्कि उन्हें हमारे देश के नेताओं ने अपना वोट बैंक बना लिया है. और उन्हें मुफ्त का माल देकर लुभाया जाता है.

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