स्वच्छ, निष्पक्ष चुनाव: सुप्रीम कोर्ट में बहस, टीएन शेषन जैसा मुख्य चुनाव आयुक्त क्यों चाहिए?

स्वच्छ, निष्पक्ष चुनाव: सुप्रीम कोर्ट में बहस, टीएन शेषन जैसा मुख्य चुनाव आयुक्त क्यों चाहिए?

20 मिनट पहले

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एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है। बहस ये है कि मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर दिवंगत टीएन शेषन जैसा कोई व्यक्ति नियुक्त हो। इसके लिए सबसे बड़ी ज़रूरत है चुनाव आयोग में नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र कॉलेजियम बनाने की।

फ़िलहाल ये नियुक्तियाँ मंत्रिमंडल की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। कह सकते हैं कि अब तक चुनाव आयोग में सरकार ही अपनी मर्ज़ी के लोगों का चयन करती रही है। हर कोई जानता है कि 1990 से 1996 तक जब टीएन शेषन चुनाव आयोग के प्रमुख रहे, तभी ज़्यादातर लोगों को पता चला था कि चुनाव आयोग नाम की कोई संस्था भी होती है जो न सरकार से डरती, न किसी और का दबाव उस पर कोई काम कर पाता।

इसके पहले और बाद तो राजनीतिक पार्टियों और सरकारों ने शेषन जैसे किसी व्यक्तित्व से तौबा ही कर ली। एक शेषन ही थे जिन्होंने सरकारों, पार्टियों और उनके प्रत्याशियों पर अच्छी तरह नकेल डाली थी। प्रत्याशियों की हालत तो ये कर दी थी कि चुनाव आयोग का नाम सुनकर ही काँपने लगते थे। चुनाव खर्च हो, जातीय या धार्मिक उल्लेख वाले भाषण और ऐसी तमाम बातों पर प्रतिबंध लगा दिया था जो चुनाव को किसी भी तरह उग्रता की तरफ़ ले जाती हों या जिनसे स्वच्छ, पारदर्शी और निष्पक्ष चुनाव किसी भी रूप में प्रभावित होता हो।

शेषन के पहले और बाद में तो चुनाव का समय, वोटिंग की तारीख़ें और कई चीजें सरकारों के हिसाब से निर्धारित होने लगीं और ऐसा करके चुनाव आयोग बड़े गर्व की अनुभूति करने लगा। यही सब मनमर्ज़ी बंद करने के लिए शेषन जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त की ज़रूरत महसूस की जा रही है। हालाँकि केंद्र सरकार फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में स्पष्ट जवाब नहीं दे पा रही है।

अटार्नी जनरल का कहना है कि सरकार को निष्पक्ष चुनाव आयुक्त की नियुक्ति से कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन स्वतंत्र कॉलेजियम गठित करने या बनाने के बारे में उनका जवाब गोल-मोल है। ज़ाहिर है- कोई सरकार नहीं चाहती कि चुनाव आयोग में उसके परोक्ष हस्तक्षेप को भी बंद कर दिया जाए। आख़िर प्रभुत्व का सवाल है और चुनाव पर ही तमाम सत्ताएँ टिकी होती हैं।

शेषन जैसे व्यक्ति को नियुक्त करके कोई राजनीतिक पार्टी या कोई सरकार क्यों आफ़त मोल लेना चाहेगी भला! ख़ैर, माथापच्ची जारी है। अगर कॉलेजियम बनता है तो उम्मीद की जा सकती है कि पारदर्शिता के नए आयाम खड़े करने में चुनाव आयोग बहुत हद तक सफल हो पाएगा।

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