कश्मीर पर नेहरू की वो भूल, आज भी देश के लिए पड़ रही है भारी

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नई दिल्ली: हिंदुस्तान पर कब्जा करने की एक कोशिश 74 साल पहले पाकिस्तान ने भी की थी. जब उसने 22 अक्टूबर 1947 को कश्मीर पर हमला करके कश्मीर के एक तिहाई हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था. जिसे अब आप Pakistan Occupied Kashmir के नाम से जानते हैं.

छल-कपट से छीन लिया गया आधा कश्मीर

पाकिस्तान कहता है कि ये हमला कबाइलियों ने किया था..लेकिन इसमें सीधे तौर पर पाकिस्तान की सेना शामिल थी. पाकिस्तान मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर को अपने देश में मिलाना चाहता था. वो मुसलमान कश्मीरियों को ये कहकर भड़का रहा था कि बहुसंख्यक हिंदुओं के देश भारत में उनके साथ कभी न्याय नहीं होगा. 700 साल पहले जो कश्मीर कभी हिंदू राजाओं का हुआ करता था और जो कश्मीर हिंदुओं का सबसे बड़ा तीर्थ बन सकता था. उसकी जनसंख्या को छल-कपट और हमलों की मदद से बदल दिया गया.

कश्मीर के 12वीं शताब्दी के इतिहासकार कल्हण ने राजतरंगिणी नामक अपनी किताब में लिखा है कि भगवान कृष्ण ने खुद अपने हाथों से यशोमति नामक राजवंश की एक महिला के सिर पर मुकुट रखकर उन्हें कश्मीर की रानी घोषित किया था. ये करीब 5 हज़ार वर्ष पुरानी घटना है. इसी पुस्तक में जिक्र है कि कश्मीर घाटी पहले एक विशाल झील थी, जिसे कश्यप ऋषि ने बारामुला की पहाड़ियां काटकर खाली किया था. राजतरंगिणी में ये भी लिखा है कि श्रीनगर की नींव मौर्य वंश के सम्राट अशोक ने रखी थी और वही श्रीनगर ही आज जम्मू-कश्मीर की राजधानी है.

संस्कृत भाषा में श्री का मतलब होता है देवी लक्ष्मी. इस शब्द को सौभाग्य का प्रतीक भी माना जाता है. यानी श्रीनगर का मतलब है देवी लक्ष्मी का नगर या सौभाग्य का नगर. कुछ विद्वानों का ये भी मानना है कि श्री नगर, सूर्य नगर का अपभ्रंश है क्योंकि कश्मीर के ज्यादातर हिंदू राजा सूर्य के उपासक थे.  

कश्मीर में हिंदू धर्म की जड़ें बहुत गहरी

यानी पौराणिक इतिहासकारों से लेकर आधुनिक इतिहासकार तक मानते हैं कि कश्मीर में हिंदू धर्म की जड़ें बहुत गहरी रही हैं. 14वीं शताब्दी में सूफीवाद कश्मीर पहुंचा. शुरुआत में वहां की हिंदू संस्कृति को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया. बाद में धीरे धीरे हिंदुओं के धर्मांतरण की शुरुआत हो गई. 

वर्ष 1846 में कश्मीर पर कब्ज़ा करने के बाद अंग्रेज़ों ने इसे 75 लाख रुपये में गुलाब सिंह को बेच दिया, जो डोगरा राजवंश के संस्थापक थे. डोगरा राजवंश के ही आखिरी शासक महाराजा हरि सिंह थे. जिन्होंने 1947 में भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए थे.

राजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए थे. वो मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर के आखिरी हिंदू राजा थे. सच ये है कि 700 वर्षों के दौरान हुए छल कपट और हमलों ने कश्मीर में हिंदुओं को अल्पसंख्यक बना दिया था.

22 अक्टूबर 1947 को हुआ था पाकिस्तानी हमला

पाकिस्तान इसी का फायदा उठाना चाहता था इसलिए   22 अक्टूबर 1947 के दिन पाकिस्तान से आए हज़ारों कबाइलियों और पाकिस्तानी सैनिकों ने जम्मू- कश्मीर पर हमला बोल दिया. उन हमलावरों ने राजा हरि सिंह की State Force को हराकर मुजफ्फराबाद से श्रीनगर जाने वाले रास्ते पर आगे बढ़ना शुरू किया.

ये मुजफ्फाराबाद ही आज Pakistan Occupied Kashmir यानी PoK की राजधानी है. 22 अक्टूबर 1947 का वो दिन भारत के इतिहास में एक Black Day यानी काला दिन साबित हुआ. इसके कुछ दिनों के बाद जब युद्ध विराम हुआ तो भारत कश्मीर का एक बहुत बड़ा हिस्सा गंवा चुका था. उस हिस्से का आकार करीब 91 हजार वर्ग किलोमीटर था. ये हंगरी, पुर्तगाल और जॉर्डन जैसे देशों के आकार के बराबर है.

भारत के ज्यादातर दरबारी इतिहासकारों ने 22 अक्टूबर को कभी Black Day का नाम नहीं दिया. इस युद्ध को धीरे धीरे जानबूझकर देश के लोगों की याददाश्त से मिटा दिया गया. जबकि जिस पाकिस्तान ने ये युद्ध भारत पर थोपा था, उसने ऐसा नहीं किया. पाकिस्तान आज भी 26 और 27 अक्टूबर को Black Day के रूप में मनाता है. 

महाराज हरिसिंह ने 26 अक्टूबर को किए हस्ताक्षर

26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के राजा हरि सिंह ने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे. इसके अगले दिन यानी 27 अक्टूबर को भारत ने कश्मीर को कबायलियों से आज़ाद कराने के लिए अपनी सेना उतार दी थी.  

पाकिस्तान ने इस बार भी 27 अक्टूबर को Black Day मनाने की तैयारी कर ली है. इसके लिए ना सिर्फ अलग अलग देशों में पाकिस्तान के दूतावासों को संदेश भेजा गया है बल्कि इसके लिए खर्चे का भी इंतज़ाम किया गया है. 

अक्टूबर 1947 में शुरू हुआ ये युद्ध दिसंबर 1948 तक चला था. ये आज़ाद भारत का अब तक का सबसे लंबा युद्ध है, जो एक वर्ष 2 महीने और 2 हफ्तों तक चला था. फिर भी इस सबसे लंबे युद्ध को युद्ध मानने से ही इनकार कर दिया गया. वो भी तब जब ये मानव इतिहास के सबसे वीभत्स युद्धों में एक था.

हिंदू-सिखों का किया गया कत्लेआम

पाकिस्तान की सेना के इशारे पर जिन कबायलियों ने कश्मीर पर हमला किया था, उनका नारा इतना खतरनाक था कि अगर आप इसे सुनेंगे तो हैरान रह जाएंगे. कबाइली हमला करते समय नारा लगाते थे, सिख का सिर, मुसलमान का घर और हिंदू की जर. यानी पाकिस्तान की सेना ने कबायलियों को हुकूम दिया था कि उन्हें जम्मू कश्मीर में जैसे ही कोई सिख दिखाई दे उसका सिर काट कर दिया जाए, जैसे ही कोई भारत समर्थक मुसलमान दिखाई दे, उसका घर जला दिया जाए और हिंदुओं की संम्पत्ति पर कब्जा किया जाए.

इस पूरे हमले की साजिश भारत के बंटवारे के साथ ही रच ली गई थी. इसे बड़े पैमाने पर पहली बार अंजाम दिया गया 22 अक्टूबर 1947 को. इस दिन पाकिस्तान के मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड के एक कमांडर खुर्शीद अनवर के नेतृत्व में हज़ारों कबाइलियों ने कश्मीर पर हमला बोल दिया. इस हमले की योजना भी पाकिस्तान की सेना ने तैयार की थी और हथियार भी पाकिस्तान की सेना ने ही मुहैया कराए थे. उस समय पाकिस्तान  की सेना के ज़्यादातर सीनियर अफसर ब्रिटिश थे. इसलिए हमले की योजना को उनसे भी छिपाकर रखा गया था.

पाकिस्तान ने दिया था ऑपरेशन गुलमर्ग नाम 

पाकिस्तान ने अपनी इस साज़िश को नाम दिया था ऑपरेशन गुलमर्ग. पाकिस्तान की इस साजिश का खुलासा खुद पाकिस्तान की सेना के एक पूर्व अफ़सर ने अपनी एक किताब में किया है. इस किताब का नाम है Raiders In Kashmir और इसके लेखक हैं मेजर जनरल अकबर खान. अकबर खान 1947 में पाकिस्तान की सेना में ब्रिगेडियर के पद पर थे और वो पाकिस्तान की सेना के General Headquarter में Director of Weapons And Equipment भी थे.

इस किताब की प्रस्तावना में अकबर खान ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात लिखी. वो लिखते हैं कि पाकिस्तान के सैनिकों को Raiders नाम भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने दिया था. आम भाषा में Raiders का मतलब होता है अचानक हमला करके लूटपाट करने वाला.

अनजाने में नेहरू बन गए पाकिस्तान के संकटमोचक

Cambridge Dictionary के मुताबिक Raider वो व्यक्ति होता है जो किसी इलाके में गैरकानूनी ढंग से घुसता है, वहां से कुछ चुराता है और वापस अपनी जगह पर लौट जाता है. जबकि हमलवार वो होता है. जो किसी देश की अंतर्राष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन करता है और उस इलाके पर कब्ज़ा कर लेता है. जवाहर लाल नेहरू शायद इस अंतर को समझ नहीं पाए और उन्होंने कश्मीर पर हमला करने वालों को Raiders कह दिया.

इससे पाकिस्तान को फायदा हुआ. लंबे समय तक पाकिस्तान दुनिया के सामने ये साबित करने में सफल रहा कि इस हमले में उसकी सेना की कोई भूमिका नहीं थी. जबकि अकबर ख़ान के मुताबिक Raiders आधुनिक युग में युद्ध की ही एक शाखा है. Aircrafts, Commandos, Guerilas, Tanks और यहां तक कि पनडुब्बियां भी दुश्मन पर Raid मार सकती है. यानी हमला करके वापस अपनी जगह पर लौट सकती हैं. 

नेहरू ने हमलावर पाकिस्तानी सेना को Raiders की संज्ञा दी और इसका नुकसान भारतीय सेना को भी उठाना पड़ा. जब कश्मीर को आज़ाद कराने के लिए भारत की सेना कश्मीर पहुंची तो शुरू में उसे भी लगा कि उसे पाकिस्तान से आए कुछ Raiders से ही लड़ना है. लेकिन हालात देखने के बाद सेना को अंदाज़ा हुआ कि यहां तो कबाइलियों के साथ साथ पाकिस्तान की पूरी सेना मौजूद है.

राजा की सेना में थे केवल 9 हजार जवान

अकबर ख़ान की किताब Raiders In Kashmir में लिखा है कि उसे कश्मीर के राजा हरि सिंह के बारे में अच्छी ख़ासी जानकारी थी. उसे ये पता था कि राजा हरि सिंह की स्टेट फोर्स में सिर्फ़ 9 हज़ार जवान हैं और इनमें से भी 2 हज़ार मुसलमान हैं. पाकिस्तान को गलतफ़हमी थी कि हरि सिंह की स्टेट फोर्स में शामिल ये मुस्लिम जवान पाकिस्तान का साथ देंगे. पाकिस्तान की ऐसी ही गलतफहमियों ने उसकी सेना के अफसरों को अति उत्साह से भर दिया था.

इस किताब के दूसरे चैप्टर का नाम है The Reason Why. इसके पहले ही पन्ने पर वो बताते हैं कि पाकिस्तान ने कबायलियों को कश्मीर पर हमला करने के लिए क्यों भेजा था. इसमें लिखा है कि उस समय भारत का आकार 46 लाख वर्ग किलोमीटर था, जिसमें 568 रियासतें थीं और जहां 40 करोड़ लोग रहते थे.  इन रियासतों को ये तय करना था कि वो भारत के साथ रहना चाहती हैं, पाकिस्तान के साथ जाना चाहती हैं या फिर आजाद रहना चाहती हैं.

इनमें जम्मू कश्मीर एक ऐसी रियासत थी जो भौगोलिक रूप से ना सिर्फ़ भारत और पाकिस्तान के लिए बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए महत्वपूर्ण थी. जम्मू कश्मीर की भौगौलिक स्थिति उस समय ऐसी थी कि रूस और उसके बीच में केवल अफगानिस्तान था. जब से ब्रिटेन ने भारत के बंटवारे का ऐलान किया था, तभी से पाकिस्तानियों को लगता था कि कश्मीर तो उनके साथ ही जाएगा. अकबर ख़ान ने किताब में लिखा कि पाकिस्तान की Spelling में जो K है, उसका मतलब कश्मीर ही है.

शेष भारत से नहीं जुड़ा था कश्मीर

अकबर ख़ान आगे लिखते हैं कि उस समय भारतीय उपमहाद्वीप को हिंदू और मुस्लिम जनसंख्या के आधार पर बांटा जा रहा था. इसलिए किसी को इसमें कोई शक नहीं था कि कश्मीर पाकिस्तान के साथ जाएगा. उस समय कश्मीर की 75 प्रतिशत आबादी मुसलमान थी और उस समय आकार में 2 लाख 18 हज़ार वर्ग किलोमीटर बड़ा जम्मू कश्मीर, सड़क, रेल या नदियों के रास्ते भारत से जुड़ा हुआ नहीं था. भारत और कश्मीर के कोई आर्थिक संबंध भी नहीं थे. 

इस किताब में लिखा है कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना का मानना था कि भौगोलिक रूप से कश्मीर के पास पाकिस्तान के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. मोहम्मद अली जिन्ना का ये भी मानना था कि कश्मीर के लोगों में पाकिस्तान को लेकर बहुत उत्साह था. 

1947 के इस युद्ध पर भारत के इतिहासकार काशीनाथ पंडिता लिखते हैं कि पाकिस्तान इस हमले को 20 अगस्त यानी आज़ादी के 5 दिन बाद ही अंजाम देना चाहता था. लेकिन British Indian Army की बन्नू ब्रिगेड के मेजर ओएस कलकत को इसकी जानकारी लग गई. जो उस समय पाकिस्तान में थे. इससे पहले कि पाकिस्तानी सेना उन्हें पकड़ती, वो भागकर दिल्ली आ गए और उन्होंने इसकी जानकारी तबके प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को दी. लेकिन तब नेहरू और उस समय के रक्षा मंत्रालय ने उनकी इस कहानी को बकवास बताते हुए खारिज कर दिया.

पाकिस्तानी पीएम ने जारी किया था गोपनीय फंड

यानी अगर नेहरू मेजर ओएस कलकत की बात पर यकीन कर लेते तो भारत की सेना को पहले ही सतर्क किया जा सकता था. उन्होंने ऐसा नहीं किया. दूसरी तरफ पाकिस्तान इस हमले की तैयारी में जुटा रहा. सितंबर 1947 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने एक गोपनीय बैठक बुलाई और उसमें उस समय के North-West Frontier Province के मुख्यमंत्री कयूम खान भी शामिल हुए.  North-West Frontier Province को ही आज पाकिस्तान में खैबर पख्तूनख्वाह कहा जाता है. इसकी सीमाएं अफगानिस्तान से मिलती है और यहां बड़ी संख्या में कबाइली रहते हैं. लियाकत अली खान ने कयूम खान को कहा कि वो इन कबाइलियों को इकट्ठा करें. लियाकत अली खान ने ये भी कहा कि इसके लिए पैसा उनके गोपनीय Fund से दिया जाएगा.

कश्मीर में दिलचस्पी सिर्फ पाकिस्तान की ही नहीं थी. उस समय ब्रिटन समेत पश्चिमी दुनिया के कई देश चाहते थे कि कश्मीर या तो आज़ाद रहे या फिर पाकिस्तान के साथ चला जाए. इसकी वजह ये थी कि उस समय कश्मीर की सीमाएं अफगानिस्तान से मिलती थी और अफगानिस्तान की सीमाएं Soviet Russia से मिलती थी. इन देशों को लगता था कि अगर कश्मीर भारत के पास रहा तो वो कश्मीर के रास्ते सोवियत संघ से नहीं लड़ पाएंगे. 

भारतीय सेना से पाकिस्तान को लगता था डर

कश्मीर पाकिस्तान के लिए सिर्फ़ पसंद नहीं बल्कि जरूरत का विषय था. पाकिस्तान को ये डर था कि अगर भारत की सेना कश्मीर तक आ गई तो वहां से पाकिस्तान पर नजर रखना बहुत आसान हो जाएगा और पाकिस्तान के लिए भारत के खिलाफ़ कोई भी हरकत करना आसान नहीं होगा. इस बात का ज़िक्र भी मेजर जनरल अकबर ख़ान ने अपनी किताब Raiders In Kashmir में किया है. 

 

अकबर ख़ान अपनी इस किताब में बताते हैं कि कश्मीर पर हमले से कुछ समय पहले उनकी मुलाकात मुस्लिम लीग के एक नेता से हुई थी जिसका नाम था मियां इफ़्त-ख़ारुद्दीन. इस नेता ने अकबर ख़ान से कहा कि वो कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने के लिए एक प्लान बनाएं, जिसे लाहौर में बैठै पाकिस्तानी नेताओं को दिखाकर उस पर मुहर लगवाई जा सके.

इस योजना को बनाते हुए इस बात का ख़ास ध्यान रखा जाना था कि इसमें पाकिस्तानी सेना के या पाकिस्तानी अधिकारियों के शामिल होने की बात किसी को पता ना चले. अकबर खान जो उस समय पाकिस्तानी सेना में Director Of Weapons And Equipment थे. उन्हें कबायलियों के लिए हथियार जमा करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी.

पुलिस की राइफलों कबायलियों को बांटी गई

Raiders In Kashmir नामक इस किताब में ये भी लिखा है कि उस समय पाकिस्तान की पंजाब पुलिस को 4 हज़ार Military Rifles दी गई थीं. ऐसा लगता था कि पाकिस्तान की पंजाब पुलिस को इन Rifles की ज़रूरत नहीं है. इसलिए इन Rifles को कबायलियों को सौंपने का फ़ैसला किया गया. 

इसके बाद 22 अक्टूबर को कबायलियों ने उस समय के अभिवाजित कश्मीर के डोमेल पर पहला हमला किया. 23 अक्टूबर को कबायलियों ने मुजफ्फराबाद पर भी कब्ज़ा कर लिया. 25 तारीख़ तक कबायली उरी पर कब्ज़ा कर चुके थे. इन आक्रमणकारियों का अगला निशाना बारामुला था. जहां 26 तारीख़ को धावा बोलकर कब्ज़ा कर लिया गया. 26 अक्टूबर की तारीख़ भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण तारीख़ों में से एक हैं. 

बारामुला से श्रीनगर की दूरी करीब 50 किलोमीटर है और पाकिस्तान की सेना और कबायलियों का अगला निशाना श्रीनगर ही था. इस बीच कबायलियों ने बारामुला में जमकर अत्याचार किए. उस समय बारामूला की आबादी 14 हज़ार थी, जिसमें से सिर्फ़ 3 हज़ार लोग ज़िंदा बचे थे. बारामूला उस समय बहुत समृद्ध हुआ करता था, जहां बड़ी संख्या में स्कूल, बाज़ार और दुकानें हुआ करती थीं. आर्थिक रूप से भी बारामूला कश्मीर के लिए बहुत महत्वपूर्ण था लेकिन कबायलियों ने यहां के लोगों का खून बहाना शुरू कर दिया. 

बारामूला में पाकिस्तान ने मचाया कत्लेआम

बारामूला के एक मशहूर चर्च St. Joseph’s Catholic Church में आग लगा दी गई. इस चर्च की लाइब्रेरी को जला दिया गया और चर्च की महिलाओं के साथ बलात्कार कर कईयों की हत्या कर दी गई. उस समय के भारत के अखबारों में भी कबायलियों के इन अत्याचारों की खबरें प्रकाशित हुई थीं. 

कबायलियों ने बारामूला में लूट मार करनी शुरू कर दी लेकिन बारामूला ही पाकिस्तान की सेना और कबायलियों के गले की हड्डी भी बन गया. दरअसल कबायली बारामूला को लूटने और वहां लोगों का क़त्ल करने में इतने व्यस्त हो गए कि इसी में दो दिन निकल गए. ये सब 26 अक्टूबर और 27 अक्टूबर को हो रहा था और कबायलियों को श्रीनगर की तरफ़ बढ़ना था. लेकिन वो बारामूला में ही अटक गए. उन्होंने लूटे हुए सामान और अगवा की गई महिलाओं को पाकिस्तान की तरफ भेजना शुरू कर दिया. इसी बीच 26 तारीख को जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए. इसी दिन पाकिस्तान ने मुज़फ़्फ़राबाद को कथित आजाद कश्मीर की राजधानी घोषित कर दिया.

27 अक्टूबर से बिखरने लगे थे पाकिस्तानी सपने

इसके अगले दिन यानी 27 तारीख़ को भारत की सेनाएं सुबह-सुबह श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतरने लगीं और यहीं से कश्मीर पर कब्ज़े का पाकिस्तान का प्लान धराशायी होने लगा. वर्ष 1947 में 26 और 27 अक्टूबर के दिन जब कबायली बारामूला से आगे नहीं बढ़ पाए तो पाकिस्तान के अधिकारियों ने मेजर जनरल अकबर ख़ान से पूछा कि क्या वो आगे के हमले की ज़िम्मेदारी लेंगे. शर्त ये थी कि इस हमले में औपचारिक रूप से पाकिस्तान की सेना के शामिल होने की बात बाहर नहीं आनी चाहिए.

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अकबर ख़ान इसके लिए तैयार हो गए लेकिन जब अकबर खान श्रीनगर से महज़ 6 किलोमीटर दूर थे, तब उन्हें अहसास हुआ कि भारत की सेना ने आगे की सड़कों को Block कर दिया है. ऐसे में कबायलियों का आगे बढ़ना संभव नहीं था. यहीं से पाकिस्तान का कश्मीर वाला प्लान हमेशा के लिए ख़त्म हो गया. इसके दो दिनों के बाद भारत की फौज ने आगे बढ़ना शुरू किया और पाकिस्तानी सेना को पीछे धकेलना शुरू किया. 7 नवंबर 1947 तक कबाइली उरी तक धकेले जा चुके थे.

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू 1 जनवरी 1948 को इस पूरे विवाद को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में ले गए थे. यहीं से ये विवाद अंतरराष्ट्रीय विवाद में बदल गया. इसके बाद 3 अगस्त 1948 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने कश्मीर विवाद पर एक प्रस्ताव पारित किया.

नेहरू की गलती से अटक गया सेना का अभियान

कश्मीर विवाद का हल निकालने के लिए बनाए गए United Nations Commission For India and Pakistan ने 13 अगस्त 1948 को अपने Resolution में साफ कहा था कि पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत की है. पूरे जम्मू कश्मीर राज्य में PoK और चीन के कब्ज़े वाले इलाके भी शामिल हैं.

इस Resolution में ये भी कहा गया था कि जम्मू-कश्मीर राज्य की संप्रभुता पर कोई सवाल नहीं उठना चाहिए. इस Resolution के मुताबिक भारत के लिए तब तक कश्मीर में जनमत संग्रह कराना जरूरी नहीं है. जब तक पाकिस्तान इस इलाके में सीज़फायर लागू नहीं करता और Pok से अपना कब्ज़ा नहीं हटाता. यानी पाकिस्तान को Pok से अपने सैनिकों, स्थानीय हमलावरों और अपने नागरिकों को हटाना था. हालांकि इस Resolution की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. अगर जवाहर लाल नेहरू कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ना ले गए होते.

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