कामवालियों की आपबीती: रोजी-रोटी के लिए सहती हूं गाली-गलौज, चोरी का इल्जाम, मालिकों की रहती है गंदी नजर, मौका मिलते ही करते हैं गलत हरकत

कामवालियों की आपबीती: रोजी-रोटी के लिए सहती हूं गाली-गलौज, चोरी का इल्जाम, मालिकों की रहती है गंदी नजर, मौका मिलते ही करते हैं गलत हरकत

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नई दिल्ली3 मिनट पहलेलेखक: दीप्ति मिश्रा

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घड़ी देख, कितनी लेट आई। छुट्टी मारी तो पगार आधी कर दूंगी। सामान नहीं मिल रहा है, तू तो नहीं ले गई? इतना सज-संवर कर क्यों आती है, मेरे पति पर डोरे डाल रही है। तू जहां जाती है, वहां के मर्दों को फंसाती है और मेरे पति पर आरोप लगा रही है…घरों में काम करने वाली महिलाओं को इस तरह की बातों और गंदी गालियों से हर रोज दो-चार होना पड़ता है। मालकिन हाथापाई पर उतर आती हैं तो मालिक मौका देख शोषण करते हैं, लेकिन गुजर-बसर करने की खातिर ये महिलाएं सब सह जाती हैं। अंतरराष्ट्रीय घरेलू कामगार दिवस पर भास्कर वुमन की रिपोर्ट में पढ़िए, घरेलू सहायिकाओं की आपबीती…

35 साल की रितु (बदला हुआ नाम) दिल्ली के पॉश एरिया वसंत कुंज की कोठियों में काम करती हैं। रितु बताती हैं कि बाली उम्र में घरवालों ने बिहार के मधेपुरा जिला में ब्याह दिया। ससुराल पहुंची तब पता चला कि पति कोई काम नहीं करता। शराब पीकर धुत हो जाना और मुझे पीटना ही उसका एकमात्र काम है। साल 2004 में पति को लेकर दिल्ली चली आई। जल्द ही दो बच्चों की मां बन गई। अपना और बच्चों का पेट पालने के लिए घरों में काम करने लगी।

इज्जत पर पेट की भूख भारी
कम उम्र। छरहरा शरीर और मालिक की गंदी नजरें। जिनसे बचने के लिए मैं कछुए की माफिक अपनी ही साड़ी में सिकुड़ जाती। पानी देने और ग्लास लुढ़कने पर सफाई करने के बहाने बुलाता। मालिक मुझे गलत जगह छूने की कोशिश करता। मैं सकपका कर भाग जाती। ज्यादातर मालिकन की नजरों के सामने ही रहती। एक रोज मालकिन घर में नहीं थी। उस दिन मेरे साथ जबरदस्ती हुई। खूब रोई। अगले दिन काम पर नहीं गई।

घरेलू सहायिका रितु। रितु कहती हैं कि हमारे लिए गाली-गलौज और चोरी का इल्जाम की तो जैसे आदत हो गई है। अब तो सरकार कुछ कानून बनाए हमारे लिए तभी शायद हमारा भाग्य खुले।

घरेलू सहायिका रितु। रितु कहती हैं कि हमारे लिए गाली-गलौज और चोरी का इल्जाम की तो जैसे आदत हो गई है। अब तो सरकार कुछ कानून बनाए हमारे लिए तभी शायद हमारा भाग्य खुले।

न पति को बता पाई न मालकिन से शिकायत कर पाई, क्योंकि कोई मेरी नहीं सुनता। मुझे ही सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया जाता। मेरा पति मुझ पर ही शक करता और पीटता। मालकिन काम से निकाल देती। बच्चों का चेहरा देखा तो काम से निकाले जाने और जल्दी से दूसरी जगह काम न मिलने का ख्याल आया। फिर बच्चों का क्या होगा, यह सोचकर ही कलेजा कांप गया। आखिर में पेट की भूख के आगे इज्जत हार गई। रितु कहती हैं कि अभी तीन घरों में काम करके 5500 हजार रुपये कमाती हूं। इन रुपयों से बस दो वक्त पेट भरने का जुगाड़ ही बमुश्किल हो पाता है।

मां बीमार हुई तो छूट गई पढ़ाई, बस याद रहा नून, तेल-खटाई
दिल्ली की एक झुग्गी-बस्ती में पली-बढ़ी निर्मला (बदला हुआ नाम) वसंत विहार की कोठियों में काम करने जाती हैं। 50 साल की निर्मला बताती हैं कि पति ड्राइवर हैं। लॉकडाउन के बाद से उनके पास काम नहीं है। दो बच्चे हैं। सुबह तड़के 4 बजे से पहले जागती हूं। पहले खुद के घर का काम निपटाती हूं। फिर सुबह 6 से रात 10 बजे तक कोठियों में काम करती हूं। तब जाकर 8000 कमा पाती हूं।

साल 1991 की बात है। मां घरों में काम किया करती थी। उस वक्त मैं 9वीं में पढ़ती थी। एकरोज मां बीमार हो गईं। स्कूल छोड़कर उनकी जगह मुझे काम पर जाना पड़ा। तब से आज तक काम ही कर रही हूं। जब जवान थी, तब मालिकों की बीवियां मुझ पर शक करती। अच्छे कपड़े पहनने, लिपस्टिक और बिंदी लगाकर जाने पर गालियां पड़तीं। मालिकों पर डोरे डालने के इल्जाम लगते, लेकिन क्या करती। घर चलाने के लिए सब सुनना पड़ता और मुंह सिलकर काम में जुटे रहना पड़ता। उम्र ढलने पर उन लोगों का रवैया कुछ खास नहीं बदला। बस इल्जाम बदल गए हैं।

घरेलू सहायिका निर्मला। वह बताती हैं कि पूरा दिन काम करते हैं, तब जाकर दो वक्त की रोटी मिलती है। उस पर भी कहीं काम से न निकाल दिया जाए, हर वक्त यह डर सताता रहता है, क्योंकि कोविड के बाद से काम आसानी से नहीं मिल रहा है।

घरेलू सहायिका निर्मला। वह बताती हैं कि पूरा दिन काम करते हैं, तब जाकर दो वक्त की रोटी मिलती है। उस पर भी कहीं काम से न निकाल दिया जाए, हर वक्त यह डर सताता रहता है, क्योंकि कोविड के बाद से काम आसानी से नहीं मिल रहा है।

सिर्फ चंद पैसे मिलते हैं, दो मीठे बोल और अपनापन नसीब नहीं
मध्य प्रदेश की सुलेखा मॉडल टाउन की कोठियों में काम करती हैं। सुलेखा के पति ड्राइवर है, जिसके पास लॉकडाउन के बाद से कुछ खास काम नहीं है। दोनों के दो बच्चे हैं। सुलेखा बताती हैं कि अभी दो घरों में झाड़ू-पोंछा, खाना और बर्तन का काम करती हूं। तब जाकर सिर्फ 4500 रुपये मिलते हैं, लेकिन कभी दो अच्छे बोल या अपनापन नसीब नहीं हुआ।

सुलेखा कहती हैं कि 10 मिनट की देरी पर भी सुनने पड़ जाता है, लेकिन मालिक के घर मेहमान आ जाते हैं या फिर स्पेशल खाना पकाना होता है तो घंटों की देरी हो जाती है, उसे याद नहीं रखा जाता है। कितनी भी बीमार रही। सिरदर्द, जुकाम, बुखार रहा। कभी किसी ने नहीं कहा- पहले एक कप चाय बनाकर पी ले फिर काम कर लेना। तेरी तबियत ठीक नहीं है तो आज रहने दे। ज्यादा बीमार होने या फिर कहीं जाने पर एक-दो दिन की छुट्टी हो जाती है तो मालिक लोग सैलरी काटकर देते हैं। जबकि उन लोगों की महीने में कई छुट्टियां होती हैं, लेकिन हमारी नहीं।

अपनी सहेलियों के साथ पीली साड़ी में बैठी घरेलू सहायिका सुलेखा। सुलेखा कहती हैं कि कुछ भी गड़बड़ी होने पर काम से निकाल दिया जाता है। मालिक-मालकिन हमारे पैसे भी नहीं देते।

अपनी सहेलियों के साथ पीली साड़ी में बैठी घरेलू सहायिका सुलेखा। सुलेखा कहती हैं कि कुछ भी गड़बड़ी होने पर काम से निकाल दिया जाता है। मालिक-मालकिन हमारे पैसे भी नहीं देते।

देश में 48 लाख से अधिक घरेलू सहायिकाएं
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में इस वक्त करीब 48 लाख से अधिक महिला घरेलू कामगार हैं। हालांकि, देश में घरेलू कामगारों की वास्तविक संख्या करीब आठ करोड़ है। घरेलू सहायिका के तौर पर काम करने वाली महिलाओं के साथ गाली-गलौज, मानसिक, शारीरिक और यौन उत्पीड़न होता है। पिछले महीने ही दिल्ली में एक काम वाली महिला के साथ क्रूरता की खौफनाक घटना सामने आई थी। 48 साल की महिला को उसके मालिकों ने इतना पीटा कि वह शरीर की गंदगी में सनी हुई बेहोश पाई गई थी। महिला के हाथ-पैर तोड़ दिए और बाल तक काट डाले थे। घरेलू कामगारों का राष्ट्रीय गठबंधन (NADW) ऐसी ही महिलाओं के हक की लड़ाई लड़ रहा रहा है।

‘पोस्ट कार्ड’ में घरेलू कामगारों के हक की बात
NADW की महिला शाखा घरेलू कामगारों के अधिकारों की मांगों को लेकर आज अंतरराष्ट्रीय घरेलू कामगार दिवस पर दिल्ली, राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों व श्रम मंत्रियों को 10 हजार से ज्यादा पोस्टकार्ड भेजेगी।

घरेलू कामगारों की मांगें

  • घरेलू कामगारों के लिए नियम व कानून बनाए जाएं।
  • घरेलू कामगारों को श्रम विभाग में पंजीकृत किया जाना चाहिए।
  • इन्हें श्रमिक होने का पहचान पत्र मिलना चाहिए।
  • घरेलू कामगारों का ESI कार्ड बनना चाहिए।
  • घरेलू कामगारों का न्यूनतम वेतन तय किया जाए।
  • 50 साल से अधिक उम्र की महिलाओं को पेंशन मिले।
  • साप्ताहिक और वार्षिक छुट्टियां तय की जाएं।

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