लक्ष्मीबाई की मददगार कौन थी, जिसका ओवैसी ने किया जिक्र: मुस्लिम लड़की ने अंग्रेजों को दिया चकमा, रानी को बचाने के लिए सीने पर खाई गोलियां

लक्ष्मीबाई की मददगार कौन थी, जिसका ओवैसी ने किया जिक्र: मुस्लिम लड़की ने अंग्रेजों को दिया चकमा, रानी को बचाने के लिए सीने पर खाई गोलियां

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नई दिल्लीएक घंटा पहले

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एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी का इन दिनों एक वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। इस वीडियो में ओवैसी ने पीएम मोदी पर कई सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि आजादी का 75वां अमृत महोत्सव में पीएम मोदी देश के लिए मर मिटने वाले मुस्लिमों को क्यों याद नहीं कर रहें।

अपने भाषण में ओवैसी ने ‘हिंदुस्तान की आजादी में मुसलमानों की भूमिका’ के बारे में भी बताया। उन्होंने कहा कि झांसी की रानी को तो याद किया जाता है, लेकिन कोई हमेशा झांसी की रानी के साथ देने वाली मुंदर को क्यों नहीं याद किया जाता। मंजर वही मुस्लिम महिला थीं, जिन्होंने कभी रानी का साथ नहीं छोड़ा और वो कोटा के युद्ध के दौरान शहीद हो गई थीं। आइए आपको मुंदर के साथ-साथ ऐसी ही मुस्लिम महिलाओं के बारे में बताते हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में बड़ा योगदान दिया था।

बचपन से रानी लक्ष्मीबाई के साथ थीं मुंदर, रानी के लिए हो गईं शहीद

इतिहासकार साकिब सलीम अपने एक आर्टिकल में लिखते हैं कि नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया में इस बात का जिक्र किया गया है कि रानी लक्ष्मीबाई को बचाने के लिए मुंदर नाम की मुस्लिम लड़की ने अपने सीने पर गोली खाई थी। आर्टिकल में लिखा है कि सेंट्रल इंडिया के गवर्नर जनरल के एजेंट रॉबर्ट हैमिल्टन ने 30 अक्टूबर 1858 को भारत सरकार के सचिव को पत्र लिखकर झांसी की रानी की शहादत की जानकारी दी थी। उन्होंने पत्र में लिखा था कि “झांसी की रानी जिस घोड़े पर सवार थी, उनके साथ एक और मुस्लिम महिला भी थी। वह और कोई नहीं मुंदर थी, जो बचपन से रानी के साथ थीं और उनकी बहुत अच्छी दोस्त भी थीं। अचानक गोली लगने से दोनों घोड़े से नीचे गिर पड़ीं।”

जॉन वेनेबल्स स्टर्ट ने पत्र में दावा किया कि इस घटना में मुंदर मौके पर शहीद हो गई थीं, जबकि रानी को ब्रिटिश गोलियों से नहीं मारा जा सका था। झांसी की रानी के लिए लिखे गए गाथाओं में भी लिखा गया है कि जब रानी ने महल छोड़ा तो उनके साथ काशी और मुंदर भी थीं। मुंदर रानी को ब्रिटिश गोलियों से बचाने में शहीद हो गई थीं, जबकि झांसी की रानी बुरी तरह घायल हो गई थीं। वहीं काशी झांसी की रानी के बेटे दामोदर को लेकर अलग निकल गई थीं।

नेशनल आर्काइव के अनुसार रानी लक्ष्मीबाई की बचपन की सहेली का नाम मुंदर था, जिन्होंने आखिरी वक्त तक रानी का साथ निभाया।

नेशनल आर्काइव के अनुसार रानी लक्ष्मीबाई की बचपन की सहेली का नाम मुंदर था, जिन्होंने आखिरी वक्त तक रानी का साथ निभाया।

जासूस की तरह काम करती थीं अजीजुन बाई

अजीजन बाई वह नाम है जो 1857 की क्रांति में उभरकर सामने आया। वह एक ऐसी तवायफ थीं जो देश की आजादी के लिए बहादुरी से लड़ीं, कभी पर्दे में रहकर तो कभी बिना किसी पर्दे के। कहते हैं कि अजीजन बाई एक जासूस और योद्धा दोनों थीं। अजीजन बाई 22 जनवरी को मध्य प्रदेश के मालवा में जन्मी थीं। वह कानपुर आ गईं। वह मूलगंज में नाच-गाना कर सबका दिल बहलाती थीं। अजीजन बाई के पास बड़ी संख्या में अंग्रेज भी आते थे। इसकी जानकारी तात्या टोपे को हुई तो उन्होंने अजीजन बाई को बुलाया। उन्होंने अजीजन बाई को अंग्रेजों की सूचना देने की बात कही। भारतीय इतिहासकारों की मानें तो वो बाद में सेना में भी शामिल हुईं, वो लक्ष्मीबाई की तरह ही पुरुषों की पोशाक पहनती थीं और पिस्तौल के साथ घुड़सवारी करती थीं। जिस दिन नाना साहब की शुरुआती जीत का जश्न मनाने के लिए कानपुर में झंडा फहराया गया था, वह उस जुलूस का हिस्सा थीं।

“मेकिंग द मार्जिन विजिबल” के एक लेख में लिखा है कि अजीज़ुन का घर सिपाहियों के मिलने और योजना बनाने का स्थल था। उन्होंने महिलाओं का एक समूह भी बनाया, जो निडर होकर युद्ध में लड़ने को तैयार थीं। इसके अलावा वो महिलाएं सिपाहियों को हथियार और गोला-बारूद इधर से उधर पहुंचाती थीं। कानपुर की घेराबंदी के दौरान, वह उन सैनिकों के साथ थी, जिन्हें वह अपना दोस्त मानती थीं और वह हमेशा पिस्तौल से लैस रहती थीं।

अजीजुन बाई एक तवायफ थीं, जो तात्या टोपे के लिए जासूस का काम करती थीं।

अजीजुन बाई एक तवायफ थीं, जो तात्या टोपे के लिए जासूस का काम करती थीं।

महल छोड़ फिरंगियों से भिड़ीं थीं बेगम हजरत

आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाली महिलाओं में एक बेगम हजरत महल भी हैं। बेगम हजरत महल 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लखनऊ से विद्रोह का नेतृत्व करने वाली महान क्रान्तिकारी महिला थीं। अंग्रेजों द्वारा अवध के नवाब वाजिद अली शाह को नजरबंद करके कलकत्ता भेज दिया। तब बेगम हजरत महल ने अवध रियासत की बागडोर संभाली थी। उन्होंने अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कद्र को राजगद्दी पर बैठाकर अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया। हालांकि, आलमबाग की लड़ाई में उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया, लेकिन इस लड़ाई में हारने के बाद उन्हें भागकर नेपाल में शरण लेनी पड़ी थी।

स्वतंत्रता संग्राम में लखनऊ से विद्रोह का नेतृत्व करने वाली पहली मुस्लिम महिला थीं बेगम हजरत महल।

स्वतंत्रता संग्राम में लखनऊ से विद्रोह का नेतृत्व करने वाली पहली मुस्लिम महिला थीं बेगम हजरत महल।

सरोजिनी नायडू के सभाएं संबोधित करती आबादी बानो बेगम

आबादी बानो बेगम, जो बी अम्मा के नाम से जानी जाती थीं, वो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में पहली महिला मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी थीं। जिन्होंने आजादी की लड़ाई के लिए महिलाओं को एकजुट करने का काम किया था। उनके दो बेटों का नाम मौलाना शौकत अली, मौलाना मोहम्मद अली जौहर थे। जो अली ब्रदर्स के नाम से मशहूर हुए। बानो बेगम ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। 1917 में जब उनके दोनों बेटों को जेल में डाला गया तो उन्होंने एनी बेसेंट के साथ आन्दोलन किए। बी अम्मा अक्सर बसन्ती देवी, सरला देवी, एनी बेसेंट, सरोजिनी नायडू जैसी महिलाओं के साथ महिला सभाओं को संबोधित करती थी।

आबादी बानो बेगम ने आजादी की लड़ाई के लिए महिलाओं को एकजुट करने का काम किया था।

आबादी बानो बेगम ने आजादी की लड़ाई के लिए महिलाओं को एकजुट करने का काम किया था।

हजारा बेगम जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ब्रिटिश साम्राज्य की आलोचना की

हजारा बेगम वो मुस्लिम महिला हैं, जिन्होंने राष्ट्र को आजाद कराने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और देश की जनता के कल्याण के लिए काम किया। अपनी शादी की विफलता के बाद वह उच्च शिक्षा के लिए लंदन चली गई, जहां वह ब्रिटिश विरोधी ताकतों से परिचित हुईं। इसके बाद ही उन्होंने ब्रिटिश ताकतों के खिलाफ देश को आजाद कराने के लिए लड़ने का फैसला किया। उन्हें कई बार ब्रिटिश सरकार के गुस्से का भी सामना करना पड़ा क्योंकि वह कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ब्रिटिश साम्राज्य और उनके काम की आलोचना करती थी।

देश की जनता के कल्याण के लिए काम में लगी रहीं हजारा बेगम।

देश की जनता के कल्याण के लिए काम में लगी रहीं हजारा बेगम।

इन मुस्लिम महिलाओं की तरह ही वीरांगना झलकारी बाई के बारे में लोग तब बात करने लगें, जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था। महान वीरांगना झलकारीबाई, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना मे महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं।

जब किले पर अंग्रेजों का कबजा निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई को कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। योजनानुसार महारानी लक्ष्मीबाई और झलकारी ने अंग्रेजों के धोखा देने के लिए अलग-अलग रास्ते निकलें। झलकारी ने अधिक आभूषण पहन रखे थे ताकि दुश्मन उन्हें रानी समझे और उन्हें ही घेरने का प्रयत्न करे। ऐसा इसलिए ताकि रानी झांसी से दूर निकल सकें। हालांकि अंत में एक गद्दार सैनिक दूल्हाजू ने शोर मचा कर अंग्रेजों को बता दिया कि यह रानी नहीं है झलकारी है। अंग्रेजों के गिरफ्त में आने के बाद भी झलकारी ने हार नहीं मानी और अंत तक लड़ती रहीं।

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