सस्ता-महँगा: डिजिटल जमाने में न जेब भरती, न ख़ाली होती, महंगाई का एहसास कैसे हो?

सस्ता-महँगा: डिजिटल जमाने में न जेब भरती, न ख़ाली होती, महंगाई का एहसास कैसे हो?

एक घंटा पहले

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ताज़ा रिपोर्ट है कि थोक महंगाई दर कम हो गई है। पिछले 22 महीनों में सबसे कम। हम आम लोग ऐसी रिपोर्ट देखकर चौंकते हैं। सोचते हैं खर्चा तो कम होता नहीं, महंगाई किधर से और कैसे कम हो जाती है, समझ में नहीं आता। दरअसल, हम अब महंगे-सस्ते की मानसिकता लेकर बाज़ार में जाते ही नहीं। हमारी दिनचर्या ही ऐसी हो गई है कि महंगाई के मायने बेमतलब हो गए हैं।

किसी चीज़ का भाव पूछना हमारी आदत नहीं रही। किराना हो, कपड़ा हो या और कोई महँगी चीज़, हम बास्केट में रखते हैं और इकट्ठा बिल चुकाते हैं। महंगे-सस्ते का अंदाज होगा कैसे? फिर पैसे भी हाथ से गिनकर देने के तो जमाने लद गए! कार्ड से पेमेंट करते हैं। पता ही नहीं चलता क्या, कितना महँगा पड़ा!

एक जमाना था जब कपड़े का भी भाव होता था। मीटर से लेते थे और दर्ज़ी से सिलवाते थे। महंगे-सस्ते का अंदाज रहता था। जितने पैसे लेकर घर से निकलते थे, लौटते वक्त जेब ख़ाली, ठन-ठन गोपाल हो जाते थे तो पता पड़ता था, महंगाई कितनी बढ़ गई है! अब तो हम ब्रांड देखकर शॉप में जाते हैं और जो शर्ट या पैंट पसंद आए उसे पहनकर देखते हैं। नाप ठीक होना चाहिए। क़ीमत पर ध्यान नहीं देते। महंगाई कितनी है, पता ही नहीं चलता।

दूसरी तरफ़ देश में कई लोग ऐसे हैं जिन के सिर पर छत नहीं है। पहनने को कपड़े नहीं है। दो वक्त की रोटी भी मुश्किल है। उन्हें महंगे-सस्ते का अंदाज है और हर वक्त होता भी है लेकिन उनकी आवाज़ सुने कौन? उनके भाव और भावनाओं से किसी को कोई लेना-देना ही नहीं है। यही वजह है कि देश में अब क्या महँगा और क्या सस्ता है, इससे कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता।

हम महंगाई का अंदाज केवल इसी से लगाते हैं कि पेट्रोल और डीज़ल के भाव कितने बढ़ गए हैं! सही है, चूँकि माल ढुलाई में सबसे बड़ा सेग्मेंट पेट्रोल-डीज़ल ही होता है, इसलिए महंगाई पर इसका फ़र्क़ भी होता है लेकिन भाव जो भी हो जाए हम पेट्रोल-डीज़ल के महंगे होने से घूमना-फिरना तो बंद करते नहीं हैं। … और जो साइकल पर हैं या पैदल हैं, उन्हें इससे कोई वास्ता नहीं है।

दरअसल, हमारा जीवन चक्र ही ऐसा हो गया है कि महंगे-सस्ते जैसे शब्द अब बेमानी हो चले हैं। यही वजह है कि वर्षों से महंगाई के खिलाफ देश में कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ। हुआ भी तो उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वो जमाना लद चुका जब प्याज़ की महंगाई सरकारें गिरा दिया करती थीं। ऊपर से रईसों की संपत्ति बढ़ती ही जा रही है। दुनियाभर में सबसे ज़्यादा संपत्ति भारतीय रईसों की बढ़ी है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में हर दस में से नौ रईसों की संपत्ति में बढ़ोतरी हुई है जबकि दुनिया में दस में से केवल चार रईसों की ही संपत्ति बढ़ पाई। हमारी दिक़्क़त यह है कि हम अरबों की फैक्ट्रियां लगाते हैं। छोटी- छोटी नहीं। जब तक घरेलू उत्पादों को बढ़ावा नहीं मिलेगा, न तो गरीब और निम्न मध्यम वर्ग को महंगाई से राहत मिलेगी और न ही गरीब ऊपर उठ पाएगा। अंतर बढ़ता ही जाएगा। गरीब, और गरीब तथा रईस और रईस होता जाएगा। अर्थ व्यवस्था की सफलता गरीब और रईसों के बीच का अंतर पाटने में है। रईसों को और रईस बनाने में नहीं।

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