राजनीति की भाषा: किसी के रूप-रंग पर टिप्पणी का अधिकार किसी को नहीं, फिर भी नेताओं की उद्दण्डता जारी

राजनीति की भाषा: किसी के रूप-रंग पर टिप्पणी का अधिकार किसी को नहीं, फिर भी नेताओं की उद्दण्डता जारी

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33 मिनट पहले

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राजनीति में रस्साकशी, बोल-चाल और भाषणों का स्तर जितना नीचे चला गया है, उसे ऊपर लाना अब मुश्किल ही नहीं, असंभव-सा प्रतीत होता है। बड़े-बड़े पदों पर बैठे नेता इस तरह के बचकाना बयान देते हैं जैसे वे कभी स्कूल गए ही नहीं हों। हालाँकि स्कूल जाने से स्वभाव का बहुत ज़्यादा वास्ता नहीं है, लेकिन परिवार, समाज और घरों में भी उन्होंने कुछ सीखा- समझा नहीं है, यह कहना ज़्यादा सही होगा।

हाल ही में तृणमूल कांग्रेस के नेता और राज्य के काबीना मंत्री अखिल गिरि ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की सूरत पर कमेंट कर दिया। यह अधिकार उन्हें किसने दिया, पता नहीं, लेकिन उन्होंने भरी सभा में कह दिया- हम किसी के चेहरे- मोहरे पर नहीं जाते, लेकिन हमारी राष्ट्रपति कैसी दिखती हैं? बस, हो गया बवाल। भारी हंगामा हुआ।

अखिल गिरि ने कहा- ममता बनर्जी नहीं चाहतीं इसलिए चुप हूं, वर्ना मार-मारकर शुभेंदु अधिकारी का हाथ तोड़ देता।

अखिल गिरि ने कहा- ममता बनर्जी नहीं चाहतीं इसलिए चुप हूं, वर्ना मार-मारकर शुभेंदु अधिकारी का हाथ तोड़ देता।

भाजपा ने कड़ी प्रतिक्रिया दी तो अखिल गिरी बैकफ़ुट पर आ गए। कहने लगे- मैंने किसी का नाम नहीं लिया। सच यह है कि नाम भले ही न लिया हो, लेकिन राष्ट्रपति तो कहा ही था। …और राष्ट्रपति तो देश में एक ही है। नाम लेने की ज़रूरत कहाँ है?

अब विवाद के मूल में जाएँ तो जो भारतीय जनता पार्टी, मंत्री के बयान का विरोध कर रही है, वह भी दूध की धुली नज़र नहीं आती। दरअसल, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से ही भाजपा में आए शुभेन्दु अधिकारी वहाँ विपक्ष के नेता हैं और उन्होंने ही सारी आग लगाई है। शुभेंदु ने अपने बयान में मंत्री अखिल गिरि को कुरूप कह दिया था। आख़िर किसी के रंग-रूप पर इस तरह की टिप्पणियाँ करना कैसे और कहाँ तक सही है?

फिर विपक्ष का नेता तो खुद काबीना मंत्री की हैसियत रखता है। उसकी गंभीरता कहाँ चली गई? राजनीति हो या कोई और क्षेत्र, क्रिया होगी, तो प्रतिक्रिया होगी। सही है, कुछ भी हो जाए, कम से कम राष्ट्रपति को तो किसी विवाद में बेवजह नहीं घसीटा जा सकता। फिर महिला राष्ट्रपति! लेकिन परिस्थितियों पर जाएँ तो उकसाने वाले को भी दोषी माना जाएगा।

शुभेंदु अधिकारी को यह अधिकार किसने दिया कि वे किसी को भरी सभा में कुरूप कह सकें! क्या केंद्र में आपकी सरकार है तो आप कुछ भी कर सकते हैं और कुछ भी बोल सकते हैं? राजनीति का यह रूप बड़ा विकृत है। इसके सुधार के लिए सभी राजनीतिक दलों को प्रयास करने होंगे।

ख़ासकर, सत्ता पक्ष को। क्योंकि सत्ता पक्ष के नेता ज़रूरत से ज़्यादा बड़बोले हो जाते हैं। देश ने यह देखा है। सरकार चाहे जिस भी दल की रही हो। हालाँकि भाजपा के किसी राष्ट्रीय नेता या तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी का इस पर अब तक कोई बयान नहीं आया है। लगता है बड़े नेताओं की यही चुप्पी राजनीतिक उत्पात को उकसाती है और सही को सही तथा ग़लत को ग़लत कहने की भावना को हतोत्साहित करती है।

भारतीय राजनीति में यह दोहरी नीति बंद होनी चाहिए। तत्काल रोकी जानी चाहिए। मोतियों की तरह शब्दों को चुन- चुनकर बोलने वाले अटलजी को हमारे नेता इतनी जल्दी भुला देंगे, ऐसा किसी ने सोचा नहीं होगा।

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